Thursday, June 20, 2013

जब नाश मनुष्य पर छाता है

पौराणिक कहावत है, जब नाश मनुष्य पर छाता है,पहले विवेक मर जाता है। जब इंसान का अंत समय आता है तो वो  कुमार्ग और अशोभनीय कार्यो में लिप्त हो कर अमानवता का परिचय देने लगे तो समझ ले, उस का विनाश निश्चित है, उसकी बुद्धि नष्ठ हो चुकी है। हम ने प्रकर्ति को  हर तरह से ललकारा है, और समय है उस परिणाम को आँखों देखि देखना। स्वर्ग को नरक बनाते  हुए हाल में उतराखंड में हुई भारी तबाही को हमने देखा। इस त्रासदी ने मानवता और आस्था  की नीव हिला दी, क्यूँ हुआ और कैसे हुआ ये हम सब को पता है। गंगा को हम नमन कर पूजते तो है पर सही माएनो में उसकी कदर नहीं करते। कितना विनाशकारी रूप है न माँ का। जो होता है वो किसी के अच्छे  के लिए तो किसी के बहुत बुरे के लिए। जो चले गए उनका दुःख है पर जो ये देख देख के मन को कचोट रहे है और ग्लानी भर रहे है, उनके लिए मेरी ये छोटी सी पंक्तिया है।



जब नाश मनुष्य पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
जो प्रकर्ति से टकराता है,
तभी तो वो मिट्टी  में मिल जाता है।

जब नाश मनुष्य पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

बुद्धिहीन इसी मानव ने,
पग पग पे  खुद कांटे बिछाता है।
जब ना चला कोई जोर खुद का,
तो अपनी करनी पर  मन पछताता है।

जब नाश मनुष्य पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

जो चला गया वो दौर कभी ना ,
लौट के वापिस आता है।
मिली है जो ये जिंदगी,
क्यूँ व्यर्थ प्रलोभन में समय बिताता है।

जब नाश मनुष्य पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

गंगा हू, मैं माँ हु तेरी,
तुझे देख के मन भर आता है।
चली थी तुझे पालने को,
पर बस अब और इस दर्द से,
मन उब जाता है।

जब नाश मनुष्य पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

हो सके तो अभी तय कर जाओ,
मानव हो,
अस्तितिव ना गवाओ।
तुम ने जो गंध मचाया है,
मानवता के नाम को तुम्ही ने,
खुद कलंकित कर डाला है।

तभी तो जब नाश मनुष्य पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

- अंकुर शरण

Sunday, June 16, 2013

देखो फिर से काले बादल मंडरा रहे हैं..

देखो फिर से काले बादल,
मंडरा रहे हैं।
पेड़ो के हो रहे बेचैन पत्ते,
कैसे लहरा रहे है।
समय ने ले ली है फिर
से नयी करवट,
ध्यान से देखो इन् बूंदों को,
ये शायद तुम से कुछ कहना चाह रहे है।

देखो फिर से काले बादल,
मंडरा रहे हैं।



तप रही थी यही वो धरती,
झुलसा रहा था ये आसमान।
सुबह की लालिमा कंही थी गुम,
हो रहे थे पथ के पथिक परेशान।
पर  माँ हैं धरती अपनी,
कब तक प्यासा रखेगी मुझको।
बुला लिया फिर से बादलो को,
नेहला दिया फिर से मेरी माँ ने मुझको।

देखो फिर से काले बादल,
मंडरा रहे हैं।
समय का पहिया,
दोबारा से चला रहे है।

फिर से ये बरस के निकल जायेंगे,
ना जाने कब,
ये फिर से मिलने अब आएंगे।
काश हम सब भी बादल होते,
जो हर दिशा में चले जाते,
कभी बरसते, तो कभी गरजते।
अपनों से मिलने को कभी ना तरस्ते।

देखो फिर से काले बादल,
मंडरा रहे हैं।
लड़कपन की मस्ती की यादें,
फिर से दिला रहे है।
कागज़ की कश्ती बनाते,
राह में चलते - छीटें उड़ाते,
कभी जूतों को पानी में डूबाते,
तो कभी डर के, माँ के पीछे छुप जाते।


देखो फिर से काले बादल,
मंडरा रहे हैं।
समय का मोल,
हर एक बूंदों की तरह
हमारे जीवन को कुछ सिखा रहे हैं।
बूंद बूंद से गागर भरता,
इन्ही पलो से भरता जीवन,
धुप छाव का खेल निराला,
बरसती घटा से,
चहक उठता उपवन।
ये काले बादल बरस के चले जा रहे है,
हम क्यों अतीत की डोर से,
खुद को उलझा रहे है?

जीना है तो इन बादलो से सीखो,
जो चुप चाप बरस के,
चले जा रहे हैं।
सुखी धरती को फिर से,
हौसला दे कर - इसे जीना सिखा रहे है,
देखो फिर से काले बादल,
मंडरा रहे हैं।

देखो फिर से काले बादल,

मंडरा रहे हैं।



- अंकुर शरण