Wednesday, November 17, 2010

सपनो का गलियारा

सपनो के गलियारे में हम ना जाने कितने बार आये गए। कुछ सपनो को हमने जिया तो कुछ अधूरे रह गए ओर हमारे जीवन के गलियारे के किसी कोने में पड़े रह गए। कभी चलते चलते दिख गए ओर फिर से उन्हें उठा लिया। ना जाने सपने इतने हसींन कैसेहो जाते है और कभी इतने दुखदायी भी।

हम हमेशा सपने की बात करते है, कल के बारे में सोचते है। आज से ज्यादा, कल पर यकीन करते है। क्या सपने इतने प्यारे होते ही हैं ? या सपनो को भी जीने के लिए हम सपनो की दुनिया की तलाश करते है? मैंने भी महसूस किया है, कई सपनो को सजीव करने की चाहत में हम आज को भूल जाते है ओर एक अलग सपने के पीछे भागने लगते है। हम यह भी ध्यान नहीं देते की कई सपने हमारे आज सच हो गए है, जिन्हें कभी हमने देखे थे।

भाग दौड़ में हम खुद को भुला बैठे है। अचानक किसी रोज़ बैठ कर फिर से अपने गलियारों में अतीत के लम्हों में चले जाते है। काश यह होजाता, काश ये कर लेते। हमे "काश " शब्द से अवकाश लेना है। हमे सपनो की सच्चाई को समझना है। हमे अपने मन् के हर ख्यालो का ख्याल रखना है ओर उसकी जरूरतों को खुद से जोड़ना है। क्या मन् में आने वाला ख्याल हमारे भले के लिए है भी की नहीं।

हम खुद को दुनिया का सबसे समझदार मानने की सब से बड़ी मुर्खता करते है। जो हो रहाहै वही सत्य है ओर जो होगा वो किस्मत। फिर सपनो का क्या ? सपने देखना चाहिए ओर सपनो को पूरा करने का हौसला भी खुद को देते रहना चाहिए। सपने जब हकीकत बन जाते है तो दुनिया में उससे ख़ुशी कंही और नहीं।

क्या सपने भी किस्मत देख के हमे चुन्न ते हैं?

नहीं न, फिर हम हर सपनो को बिना सोचे समझे क्यों सच करने में जुट जाते है? हमे जिंदगी में अपने सपनो के महत्त्व को समझना होगा, क्योंकि कल जब ये सपने पुरे हो तो उसे जीवंत करने की जिम्मेदारी भी हमारी ही होगी। हमे सपनो का दायरा बढ़ाना है। हमे अपने आप को सपनो से नहीं बल्कि सपनो को खुद से जोड़ना है। जो हो रहा है वो अच्हा है ओर जो होगा वो उससे भी अच्छा होगा।

हम भगवन से बहुत कुछ मांगते है, जो मिला उसे तो आशीर्वाद समझ लिया ओर जो न मिला - वो किस्मत के हवाले। हमे बचपन से मांगने की ऐसी आदत पड़ जाती है की उम्र भर बस मांगते ही रहते है। कभी भगवान से , कभी माँ बाप से, कभी दोस्त तो कभी पड़ोसी। हमारी मांगने की ऐसी आदत पड़ गयी है की हम देने की सोच से ही अज्ञान है। हम भी कुछ दे सकते है, यह तो कभी सोचा ही नहीं। परिवार , रिश्तेनातो में जो कुछ लेना देना होगया, बस वही तक हमारी सोच रहती है।

हमने अपनी सोच का भी दायरा निर्धारित कर रखा है। सपनो का कोई गलियारा नहीं, सपने तो खुले आकाश में उड़ते हुए पंछी है , जो कंही भी आ जा सकते है। खुद के विचारो को और सपनो को मुक्त रखना ही हम ओर हमारे समाज के लिए शोभनीय है। हम अपने को खुश रखेंगे तभी हम अपने परिवार , अपने भविष्य ओर अपने समाज के लिए कुछ कर पायेंगे।

- अंकुर शरण

Saturday, November 13, 2010

सुखी राम - दुखी राम

सुखी राम ओर दुखी राम में सिर्फ एक फर्क है - सोच का। हमने मान लिया की ये जो हो रहा है वही हमारी किसमत है, तो बस उसी का रोना रोते हुए जीवन काट देते है। वही कुछ ऐसे भी है जो हर हाल में खुश रहने के लिए अपने जीवन से समाझोता नहीं करते ओर वो सब कार्य करते है जो उन्होंने चाहा है।

मैं भी सुखी राम का ही भक्त हू। पर ना जाने क्यों कई बार अपने गलियारे में , कई ऐसे दुखी राम भक्तो से मिला हू जो अपने जीवन को एक बोझ समझते हैं। मुझे वाकई में ताज्जुब होता है, जुम्मा जुम्मा चार दिन हुए नहीं जिंदगी के ओर बस सारी बुराई नज़र आने लगी। हमारे पास ये हो, वो हो, बस इन्ही चक्करों में अपना समय हम व्यर्थ कर देते है, ओर वो नहीं कर पाते जिसे हम उस समय कर सकते थे। ये हम सब की आत्म कथा है।


कई सारे लेखो को मैंने पढ़ा ओर सब का यही तर्क है, आप तब तक दुखी है जब तक आपने खुद को दुखी राम का भक्त मानते रहेंगे। भगवान भी उसी की मदद करता है, जो इंसान खुद के जीवन का सद उपयोग करता है। ये जीवन हमे रोने क लिए नहीं, बल्कि उन् तकलीफों से गुजरते हुए लोगो को उबारने के लिए है- जिन्हें सही राह की जरुरत है। किसी रोते को चुप कराना बहुत कठिन है ओर आज हस्ता हुआ कोई कैसे एक दुसरे को देख सकता है?


हम बस सुख की कामना करते है। सिर्फ कामना से ही पेट भर जाता तो शायद, भगवान हमे पेट देता ही नहीं। हम हर कुछ किसमत के भरोसे नहीं छोड़ सकते। हमे खुद की किसमत रचनी है ओर हम ही अपने भाग्य विधाता है। हमे हर हाल में सुखी रहना है, रहना है ओर बस रहना है। चाहे कितने भी दुःख हमे घेर ले।




अपने कुछ मित्रो के जीवन में ऐसा कुछ देखा की मन् सिहर जाता है। एक की माँ को कुछ लुटेरो ने सिर्फ इस बात पर गोली मार दी की उन्होंने उनका विरोध किया। बचपन से जिनको देखा, उनकी खून से सनी लाश ने काफी आक्रोश भर दिया है, हम सब चुप है - क्योंकि इसी में सब की भलाई समझते है ।




१०-१२ सालो से मेरी एक दोस्त, जिसे मैं स्कूल से जानता हू, हम साथ पढ़े। स्कूल के बाद कभी मौका नही मिला सका मिलने का, कभी बात होती तो बस प्रोग्राम बनता की कभी मिलते है - मैंने भी कितनी बार कहा होगा की कभी घर आता हू, आंटी अंकल से मिलूँगा। पर शायद, नसीब में उनकी सिर्फ फोटो देखना था। उसने मुझसे कुछ ऐसा कहा की वो एहसास मन् को झंझोड़ के रख दिया, " तू मिलना चाहता था न , अब मिल ले" - दोनों की फोटो दिवार पर हार के साथ थी। जून २०१० में आंटी का देहांत हो गया ओर अक्टूबर मे अंकल का, ५०-५५ की आयु में वो तो चले गए पर दिल बहुत दुखी हो जाता है , अपनी दोस्त के जीवन के बारे मे सोच के। हम कहते हैं न जो होता है अछे के लिए होता है, ना जाने इसमें क्या अच्छा है ?


कुछ घटनाये जीवन के प्रति आप की सोच बदल देती है। किसी के बिछड़ने का गम तो हमे सदा रहेगा पर वो इश्वर के हाथ में है , जो आज है उस पर यकीन कर के पूरी मेहनत कर के उस समय को जी लेना। आज हमे दुसरो से ज्यादा खुद की जरुरत है। सुख के सब साथी, दुःख में ना कोई। जीवन के कटु सत्य को दर्शाती है ये पंक्तियाँ। जब हम दुखी होते है तो खुद को इतना तनहा क्यों समझ लेते है?


हर सवाल का जवाब खुद में ही छिपा होता है। हम सब में एक विद्वान् है पर वो छिपा बैठा है, हम उससे बात ही नहीं करते , हम उससे कुछ पूछते ही नहीं। क्योंकि हमे खुद से ज्यादा आज दुसरो पर यकीं हैं । मैं भी पंडित बन जाता हू ओर कभी तो इतना बोलता हू की सामने वाला बोल ही देता है, कितना बोलते हो। बस वो बात चुभ गयी ओर जब कोई बात तकलीफ दे तो उससे भागना नहीं बल्कि खुद से पूछना चाहिए , की जो मैं बोल रहा हू क्या वाकई में उस इंसान को मेरी बातो या विचारो की जरुरत है?


व्यर्थ में विचार बाटना मुर्खता है, खुद का अपमान है। जब प्यास लगे तभी पानी पियो, हर चीज का वक़्त है। कोशिश करनी चाहिए की इंसान खुद का पेट अपनी मेहनत्त से भरे ना की किसी के भोजन दे देने से। हमे खुद को यह यकीन हर रोज़ दिलाना होगा, जो ये हो रहा है इससे भी अच्छा हो सकता है - बस इस सोच से अपना काम करना होगा।



हमे सुख दुःख से घबराना नहीं है बल्कि यही विश्वास खुद कों दिलाना है, दुखी राम हो या सुखी राम - हर वक़्त की अपनी महिमा है। आने वाला पल, जाने वाला है। हो सके तो इसमें, जिंदगी बितादो - पल जो ये जाने वाला है।
- अंकुर शरण

Thursday, November 11, 2010

" छिन्द्वारा "

" छिन्द्वारा "

एक छोटा सा हरा भरा कटोरा मानो हरी हरी पत्तियों से भरा पड़ा है। स्वक्ष निर्मल हवा मानो रोम रोम खिला दी हो। एक अजीब सी चमक थी मेरी आँखों में।








अतीत से भाग दौड़

हम अपने अतीत से क्यूँ भागते है?
क्यूँ कुछ अतीत हमारे सुख चैन को छीन लेते है?
क्या वाकई में अतीत हमारा पीछा करते है या हम पीछे मुड़

हम ओर हमारा अतीत