कौन कुण्डी खोलने वाला है....
दरवाजे पर लटकी कुण्डी ने,
देखा है उस बचपन का प्रवेश.
जिसे हम छु भी न पाते,
बस उचल के, उसे निचे गिराते.
अगर खुल गयी वो मानो ,
तो वह क्या सौन्दर्य पल दर्शाता था।
होली दीवाली का वो पर्व,
मनोहर गुल खिलाता था।
वंही किसी के खासने की आवाज
आया करती थी!
डिबरी के जलते मंद प्रकाश से,
हर शाम उजियारी होती थी।
बारजे से उन् आँखों ने,
इंतज़ार का पल भी देखा था।
कभी बजती थी घंटी पूजा में,
चोके से धुआ यंहा उठता था।
आज वक़्त के इस खेल ने,
ये काहा ला कर हमे खडा किया।
बचपन के वह मद मस्त दिनों को,
आज फिर से जिवंत करा दिया।
सो गयी वे आँखे, बुझे धुए।
ना कोई चहकने वाला है,
कब हम यू ही बड़े हो गए,
अब कौन कुण्डी खोलने वाला है....
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बचपन तो गलियारे में खड़ा है....
इलाहाबाद में गुजरे बचपन के कुछ पल हमेशा से मेरे दिल के बहुत करीब रहे है। हमारे बचपन का वो सुखद लम्हा भी तो वही से शुरू हुआ था। हमारे जीवन में अपने परिवार के अलवा कुछ भी प्यारा ना था और ना हुआ, शायद वो हमारे बाबा, दादी का प्यार ही था और शुभ आशीष जिससे हम दूर रह कर भी हमेशा अपने परिवार से जुड़े रहे। आज भी वो प्यार तो है, पर वो हाथ नही जो अब कभी हमारे सर पर रख कर आशीर्वाद दे सके।
काफी हृदय विदारक द्रश्य था जब मैं अपने पुश्तैनी घर में गया, तो मानो बचपन की वो हर यादे ताज़ी हो गयी, अपने उन् अनुभवों को शब्द देने की एक कोशिश की है। न जाने कुछ लोग क्यों साथ रह कर भी दुखी हैं तो कुछ किसी का साथ छोड़ जाने से दुखी है...
आज हम सब बड़े हो गए है, वो घर, वो गली, वो गलियारा, वो आँगन सब अब अतीत में कंही खो गया है, और यूँही कभी कभी झांक कर मुझे वापस बचपन के गलियारे में बुलाता है। हम बचपन के उस दौर में लौट तो नही सकते पर अपने इस गलियारे में रह कर भी उसे देख तो लेते ही है। आज भी दादी पूजा में और बाबा बारजे में खड़े मुझे दिख रहे है......
हर पल ख़ास है, और हर ख़ास पल ही जीवन।
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