Sunday, June 16, 2013

देखो फिर से काले बादल मंडरा रहे हैं..

देखो फिर से काले बादल,
मंडरा रहे हैं।
पेड़ो के हो रहे बेचैन पत्ते,
कैसे लहरा रहे है।
समय ने ले ली है फिर
से नयी करवट,
ध्यान से देखो इन् बूंदों को,
ये शायद तुम से कुछ कहना चाह रहे है।

देखो फिर से काले बादल,
मंडरा रहे हैं।



तप रही थी यही वो धरती,
झुलसा रहा था ये आसमान।
सुबह की लालिमा कंही थी गुम,
हो रहे थे पथ के पथिक परेशान।
पर  माँ हैं धरती अपनी,
कब तक प्यासा रखेगी मुझको।
बुला लिया फिर से बादलो को,
नेहला दिया फिर से मेरी माँ ने मुझको।

देखो फिर से काले बादल,
मंडरा रहे हैं।
समय का पहिया,
दोबारा से चला रहे है।

फिर से ये बरस के निकल जायेंगे,
ना जाने कब,
ये फिर से मिलने अब आएंगे।
काश हम सब भी बादल होते,
जो हर दिशा में चले जाते,
कभी बरसते, तो कभी गरजते।
अपनों से मिलने को कभी ना तरस्ते।

देखो फिर से काले बादल,
मंडरा रहे हैं।
लड़कपन की मस्ती की यादें,
फिर से दिला रहे है।
कागज़ की कश्ती बनाते,
राह में चलते - छीटें उड़ाते,
कभी जूतों को पानी में डूबाते,
तो कभी डर के, माँ के पीछे छुप जाते।


देखो फिर से काले बादल,
मंडरा रहे हैं।
समय का मोल,
हर एक बूंदों की तरह
हमारे जीवन को कुछ सिखा रहे हैं।
बूंद बूंद से गागर भरता,
इन्ही पलो से भरता जीवन,
धुप छाव का खेल निराला,
बरसती घटा से,
चहक उठता उपवन।
ये काले बादल बरस के चले जा रहे है,
हम क्यों अतीत की डोर से,
खुद को उलझा रहे है?

जीना है तो इन बादलो से सीखो,
जो चुप चाप बरस के,
चले जा रहे हैं।
सुखी धरती को फिर से,
हौसला दे कर - इसे जीना सिखा रहे है,
देखो फिर से काले बादल,
मंडरा रहे हैं।

देखो फिर से काले बादल,

मंडरा रहे हैं।



- अंकुर शरण

 


























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