उस अंधकार की सुबह अब न होगी,
न उस शरीर की हालत अब और बत्तर होगी।
जितनी कायरता से समाज ने उसे ये दर्द दिया,
उसकी आत्मा भी हमे कही न कही कोसती होगी।
हम सब ने बहुत आँसू बहा लिए,
धरना प्रदर्शन किया और मोम के दिए भी बहुत जला दिए।
आज भी हम उसी राह पर जा रहे है,
आज भी उन्ही बंद दरवाजो पे लटकती कुण्डी खटखटा रहे हैं।
फिर से कोई न कोई सत्ता के गलियरो से आवाज दे देगा,
फिर से नया पैंतरा और परिवर्तन का आघाज़ हम में भर देगा।
रोज मर्रा की जिंदगी में हम फिर न खो जाये,
आज तो एक जुट हुए है,
कल फिर न इस दर्द को भूल जाये।
सब का साथ तो ठीक है,
पर अब द्रन्संकल्प भी चाहिए।
दिल्ली ही नहीं, देश की किसी गली में अब कभी यह घटना न होनी चाहिए।
वह चली तो गयी,
पर एक चिंगारी हमारे सीने में जला गयी है।
इतिहास के पन्नो में,
समाज की इस बर्बरता को आईना दिखा गयी है।
- अंकुर शरण
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