गलियारों की सैर, कोई कल्पना नही बल्की मेरे वो मन के भाव हैं, जिन्हें मैंने महसूस किया है। गलियारों की सैर, एक ऐसा निर्मल भाव प्रस्तुत करती है... जिसे जान कर, समझ कर आप भी अपने गलियारों में लौट जाना चाहेंगे! - अंकुर शरण
Saturday, April 3, 2010
"माँ तब भी रोती थी"
"माँ तब भी रोती थी जब बेटा रोटी नहीं खाता था और माँ आज भी रोती है जब बेटा रोटी नहीं देता"
कितनी ह्रदय विदारक यह पंक्ति है न? एक पंक्ति से मन् को कितनी ठेस पहुची तो उस माँ के कलेजे पर क्या बीतती होगी। माँ जो अपने जिगर के टुकड़े को ताउम्र अपने सीने से लगाये रखने का ख्वाब संजोती है, बस अपनी औलाद के सामने बेबस जान पड़ती है। क्या करे, माँ जो है।
हम इतने खुदगर्ज कैसे हो सकते है जो अपनी जननी को यह दिन दिखाए। यह एक हमारे समाज की एक सच्चाई है। लोग घर परिवार छोड़ देते है, कुछ अपने प्यार के लिए तो कुछ ऐशो आराम के लिए। कुछ कमाई के लिए तो कुछ शौक आजमाई के लिए। क्या कभी भला हो सकता है ऐसे समाज का जन्हा हम चाँद पर जाने की बात तो करते है पर चंद प्यार और रोटी अपनों को नहीं दे सकते।
Thursday, April 1, 2010
"अन्धो की बस्ती में"
बिहार से फिर कुछ ऐसी खबरों ने दिल को भेद दिया। बच्चे, माँ के गर्भ में ही अंधे हो रहे है, दोष उनका कहे या हमारे देश की किस्मत का। आर्सनिक नाम के जहर ने इस कदर भूमिगत जल को विषैला कर दिया है की लोग बचपन से ही अंधेपन का शिकार हो रहे हैं।
एक अजीब सा डर बैठ गया है मन में। गाँव का जीवन, जिसे हम शहर के जीवन से सुखद समझते थे वो झूठा प्रतीति होने लगा है। लोग गाँव छोड़ कर शहर आते है और अब शहर की सीमा गावो की तरफ बढती जा रही है। प्रकृति से छेड़ छाड़ हा ही नतीजा है जो आज ये खबर गावो से होती हुई, हमारे कानो में गूंज रही है। वो दिन दूर नहीं जब अपनी तबाही के मनजर को हम तो देख लेंगे पर कल कोई न देख पाएगा और न ही दिखा पायेगा।
"मेरी बस्ती को आज लोग अन्धो की बस्ती के नाम से जानते है। यह बस्ती हमारे आज़ादी के करीब ६० दशक बाद ही पनपी है। यंहा हम सब बच्चे अंधे है, यकीं नहीं आता ना?"
"मैंने माँ से सुना है , मैं भी देख सकता था। पर मुझे भगवन ने नहीं, मेरे अपने देश के लोगो ने कुछ देखने न दिया। कसूर न मेरा है और न मरे माँ बाप का, कसूर तो बस हमारे देश की सोच का है। हम बदलाव की सोच तो रखते है पर उस सोच को सोचते ही रहते है। हम जीते तो है , पर बस जीते है। तड़प कर जिसमे हर सांस में मौत की सुगंध आती है। मेरे लिए रात दिन के कोई मायेने नहीं, मुझे तो हर वक़्त एक गूंज बदहवास कर जाती है। मैंने किसी का क्या बिगाड़ा था, या मैंने किसी को कौन सा झूठा वादा किया ? आज मैं क्या कर सकता हु, मेरी बहिन क्या करेगी? माँ बापू डरते है की उनके बाद हमारी देख रेख कौन करेगा। हम तो खुद इतने लाचार है..."
ये तो एक मन के भाव है जो अपने परिकल्पनाओ को शब्द दे रहा हु, पर हकीक़त से ये बहुत दूर नहीं। कल हो सकता है ये हकीक़त इस समाज की हो जाये। हम समाज की परिभाषा ही नहीं समझते। अपने परिवार के ४ सदस्यों को जान लिया बस इतना काफी है। समाज को जानना है तो पहले खुद को समजना पड़ेगा, नेता की सोच त्यागनी पड़ेगी। दिखावा नहीं, कुछ कर गुजरने की हिम्मत तभी आएगी। भविष्य तो दिख ही रहा है फिर आज से क्यूँ न अपने विचारो को बदला जाए और कुछ कदम इस तरफ भी उठाये जाए। एक कोशिश, किसी की जिंदगी बदल सकती है।
हमे दुसरो को नहीं, अपने आप को जगाना है। हमे मात्र अपने लिए ही नहीं, इस समाज को कुछ कुछ दे कर जाना है। स्कूल, कॉलेज, दफ्तर तो रोज हम सब जाते है और लौट आते है और कुंए का मेढक का जीवन जी कर रह जाते है।
ये तो हमारा दाइत्व नहीं, हमे खुद को हर दिन यकीं दिलाना होगा। हम भी इस समाज का अभिंग अंग है और हमे ऐसी हर परिस्थति का सामना एक जुट हो कर करना होगा। हमे स्वयं को बदलना होगा, समाज का अन्धो की बस्ती कहने वाले भी हम है और बनाने वाले भी। चोट देना आसन है पर मरहम लगा के हौसला देना बहुत कठिन।
"मैं अपने लेख से न ही किसी को हौसला दे रहा हु न ही अपने समाज को गाली। मैं एक कोशिश कर रहा हु, खुद को यकीं दिलाने का - की प्रयास ही जीवन है, कुछ प्रयास मानव सेवा के लिए किये जाए तो हम संभवता एक सकारात्मक जीवन जीने की प्रेरणा हम स्वयं को देते रहेंगे।"