Saturday, April 3, 2010

"माँ तब भी रोती थी"

हमे स्वयं नहीं पता कब कौन सी बात चुप चाप कुछ एहसास करा जाए। कभी कभी तो एक छोटी सी पंक्ति भी बहुत कुछ कह जाती है -


"माँ तब भी रोती थी जब बेटा रोटी नहीं खाता था और माँ आज भी रोती है जब बेटा रोटी नहीं देता"

कितनी ह्रदय विदारक यह पंक्ति है न? एक पंक्ति से मन् को कितनी ठेस पहुची तो उस माँ के कलेजे पर क्या बीतती होगी। माँ जो अपने जिगर के टुकड़े को ताउम्र अपने सीने से लगाये रखने का ख्वाब संजोती है, बस अपनी औलाद के सामने बेबस जान पड़ती है। क्या करे, माँ जो है।

हम इतने खुदगर्ज कैसे हो सकते है जो अपनी जननी को यह दिन दिखाए। यह एक हमारे समाज की एक सच्चाई है। लोग घर परिवार छोड़ देते है, कुछ अपने प्यार के लिए तो कुछ ऐशो आराम के लिए। कुछ कमाई के लिए तो कुछ शौक आजमाई के लिए। क्या कभी भला हो सकता है ऐसे समाज का जन्हा हम चाँद पर जाने की बात तो करते है पर चंद प्यार और रोटी अपनों को नहीं दे सकते।

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