Tuesday, July 22, 2014

जीवन में कभी न कभी चाँद को देख के अक्सर भागती  ज़िंदगी को सुकून मिलजाता है,
कुछ रोज़ की तो बात थी, अक्सर माँ की नाराज़गी या पिता जी के फटकार से भाग कर छत पर चुप चाप उड़ते बादलो से झांकते चाँद को देखता रहता था। 

कभी कोई हवाई जहाज दीखता तो उसे निहारता रहता जब तक वो बादलो में छुप ना जाता। टिमटिमाते तारो को जोड़ना और उसमे अपने नाना जी को खोजना। सुना था की लोग धरती से उठ कर तारो में समां जाते है। 
आज भी जब कभी टहलने निकलता हु तो चाँद भी खोजने से मिलता है। अब तो मकान बड़े हो गए है और चाँद  छोटा।

बचपन के गलियारे से निकल के उसने भी नयी बस्ती जो बना ली है।  जो मुझे अक्सर मिल जाता था आज वो भी मुह कतराने लगा है।  समझ नहीं आता, वो बदल गया है या वो गलियारा। शायद बचपन के गलियारे से नन्ही आँखे जो देखती थी वो दिल को छू जाती थी, तभी तो आज भी बचपन का  प्रतिबिम्ब चाँद में नज़र आ जाता है। 

कभी चुप चाप अकेले चाँद को देखना, आप भी मेरी तरह अपने गलियारे में कुछ पल के लिए जरूर लौट जाओगे।

धन्यवाद,

अंकुर शरण







 

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